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जेएनयू प्रकरण : सियासत हो या कार्रवाई?

अभेद्य
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जेएनयू प्रकरण पर क्या हो सियासत या कार्रवाई? सवाल जितना छोटा है तासीर उतनी ही गर्म। भाजपा देशद्रोह पर कार्रवाई को लेकर समझौता करने को तैयार नहीं तो दूसरी ओर वाम संगठन सहित कई दल उमर खालिद और उसके साथियों की हरकत को अभिव्यक्ति की स्‍वतंत्रता कहते हैं। ये किसी दल विशेष की वकालत नहीं बस एक सवाल है कि यहां भाजपा सही है या फिर विपक्ष में खडे अन्‍य दल? जेएनयू में भारत विरोधी जो नारे लगे उसे देश के भविष्‍य के लिए तो कमई बेहतर नहीं कहा जा सकता है। ‘हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के…।’ इस गीत में स्वतंत्रत भारत की अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए जो चिंता जताते हुए बच्चों पर भरोसा जताया गया था। लेकिन जेएनयू के कुछ बच्चों ने जो किया उस पर गीत की यह पंक्तियां भी आज स्तब्ध होंगी। देशद्रोह के आरोपियों का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप देखकर ऐसा लगता है क‍ि मानों किसी परिवार के जिम्‍मेदार अपने घर के बच्‍चों को घर में ही गालियां बकने का संस्‍कार भर रहे हों। यहा कहां तक जायज है? जिन्‍हें आज भटका हुआ बच्‍चा कहा जा रहा है यदि वे यही संस्‍कार लेकर बड़े हुए तो सोचिए देश का भविष्‍य कैसा होगा? जब आपने देश का बंटवारा देख लिया, कश्‍मीर में धारा 370 लागू होते देख लिया, देश की रक्षा में शहीद हो रहे वीर सपूतों की शहादत देख ली, तो क्‍या एकबार शोर मचाने वाले खामोश होकर देश विरोधी नारे लगाने वालों पर पुलिस कार्रवाई नहीं देख सकते हैं। इस प्रकरण पर अब जनता ही सोचे तो बेहतर है। राजनीतिक दलों का रूख तो स्‍पष्‍ट हो चुका है।

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